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पूर्व एडीजे मेहर सिंह रत्तू की समयपूर्व सेवानिवृत्ति के आदेश को हाईकोर्ट ने ठहराया वैध, याचिका खारिज

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पंजाब एवं हरियाणा उच्च न्यायालय ने शुक्रवार को एक पूर्व अतिरिक्त जिला एवं सत्र न्यायाधीश द्वारा दाखिल उस याचिका को खारिज कर दिया, जिसमें उन्होंने वर्ष 2000 में “सार्वजनिक हित” के आधार पर दिए गए अनिवार्य सेवानिवृत्ति के आदेश को चुनौती दी थी। जस्टिस शील नागू एवं जस्टिस  सुमित गोयल की खंडपीठ ने यह स्पष्ट कर दिया कि ‘सार्वजनिक हित’ की अवधारणा व्यापक है और इसमें सक्षम प्राधिकारी की विषयगत संतुष्टि निर्णायक होती है, जिसे सामान्यतः न्यायिक समीक्षा के दायरे में नहीं लाया जा सकता।

याचिका पूर्व न्यायिक अधिकारी मेहर सिंह रत्तू द्वारा दायर की गई थी, जो पंजाब न्यायिक सेवा में कार्यरत थे और जिनसे 2000 में पूर्ण न्यायालय की अनुशंसा पर न्यायिक कार्य वापस लेकर उन्हें अनिवार्य रूप से सेवानिवृत्त कर दिया गया था। रत्तू ने इस निर्णय को मनमाना, दुर्भावनापूर्ण और विधिसम्मत प्रक्रिया के विरुद्ध करार देते हुए इसे निरस्त करने की मांग की थी।

हालांकि खंडपीठ ने उनके इस तर्क को अस्वीकार करते हुए कहा कि उनके समग्र सेवा रिकॉर्ड में ऐसी अनेक प्रविष्टियाँ और टिप्पणियाँ थीं, जो उन्हें सेवा में बनाए रखने के पक्ष में नहीं जातीं। न्यायालय ने अपने निर्णय में यह भी रेखांकित किया कि उनके खिलाफ समय-समय पर प्रतिकूल टिप्पणियाँ की गई थीं, जिनमें न्यायिक दक्षता, कार्यप्रणाली और ईमानदारी पर प्रश्न उठाए गए थे।

विशेष रूप से वर्ष 1997 में फतेहगढ़ साहिब में निरीक्षण के दौरान तत्कालीन प्रशासनिक न्यायाधीश द्वारा रत्तू के न्यायिक आचरण को लेकर प्रतिकूल टिप्पणियाँ की गई थीं, जो निरीक्षण रिपोर्ट का हिस्सा बनीं। रत्तू ने इन टिप्पणियों के विरुद्ध अभ्यावेदन भी प्रस्तुत किया, किंतु इसे अस्वीकार कर दिया गया। यही नहीं, 1997-98 की निरीक्षण रिपोर्ट में भी उनकी कार्यशैली पर प्रश्न उठाए गए और अंततः उनके वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट को “औसत” घोषित किया गया।

हालांकि उनके विरुद्ध पूर्व में जारी आरोप-पत्र को पूर्ण न्यायालय ने वापस ले लिया था और उन्हें एक “रिकॉर्ड योग्य चेतावनी” देकर भविष्य में अधिक सतर्क रहने की सलाह दी गई थी, लेकिन पीठ ने कहा कि मात्र आरोप हट जाने और चेतावनी दिए जाने से वह पात्र नहीं हो जाते कि उन्हें 55 वर्ष की आयु के बाद भी सेवा में बनाए रखा जाए। अदालत ने दोहराया कि प्रतिकूल टिप्पणियाँ, चेतावनियाँ या सलाह भी उस प्रक्रिया में महत्व रखती हैं, जब किसी कर्मचारी की सेवा अवधि बढ़ाने पर विचार किया जाता है।

याचिकाकर्ता के वकील ने यह तर्क दिया कि जब पूर्ण न्यायालय ने ही पूर्व में लगाए गए आरोपों को खारिज कर दिया था, तो उनके आधार पर बाद में सेवा समाप्त करने की अनुशंसा करना अनुचित था। लेकिन न्यायालय ने इस तर्क को भी स्वीकार नहीं किया और कहा कि सेवा रिकॉर्ड की समग्रता के आधार पर ही यह निर्णय लिया गया था।

पीठ ने कहा कि पूर्व न्यायिक अधिकारी के विरुद्ध लिए गए निर्णय में कोई मनमानी या दुर्भावना नहीं दिखती। बल्कि यह स्पष्ट है कि पूर्ण न्यायालय ने उपलब्ध संपूर्ण सेवा रिकॉर्ड पर विचार करने के बाद, कानून की सीमाओं के भीतर रहते हुए विवेकपूर्ण निर्णय लिया। इसीलिए न्यायिक समीक्षा का यह मामला नहीं बनता।

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