
पंजाब एवं हरियाणा हाईकोर्ट ने एक अहम निर्णय सुनाते हुए कहा है कि यदि किसी हिंदू पुरुष को संपत्ति हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 की धारा 8 के तहत उत्तराधिकार से मिलती है, तो वह उसके हाथों में स्वयं-अर्जित संपत्ति मानी जाएगी और पुत्रों को उस पर कोई जन्मसिद्ध अधिकार प्राप्त नहीं होता। यह फैसला जस्टिस विरिंदर अग्रवाल की बेंच ने अमरजीत सिंह व अन्य बनाम रत्तन सिंह व अन्य मामले में सुनाया, जिसमें पुत्रों ने लगभग 217 कनाल कृषि भूमि को पैतृक घोषित करते हुए पिता द्वारा की गई बिक्री रद्द करने की मांग की थी। पुत्रों का तर्क था कि भूमि दादा चनन सिंह से पैतृक रूप में प्राप्त हुई थी तथा पिता रत्तन सिंह केवल कर्ता होने के नाते इस पर सीमित अधिकार रखते थे, इसलिए बिना कानूनी आवश्यकता के की गई बिक्री अवैध है। हालांकि, प्रथम अपीलीय अदालत ने यह कहते हुए उनका दावा खारिज कर दिया था कि संपत्ति पैतृक नहीं बल्कि व्यक्तिगत उत्तराधिकार में मिली थी।
हाईकोर्ट ने रिकॉर्ड और दलीलों का विश्लेषण करते हुए पाया कि चनन सिंह की मृत्यु 1960 के दशक में हुई, जब हिंदू उत्तराधिकार अधिनियम लागू हो चुका था। उनकी विधवा, तीन पुत्र और एक पुत्री—सभी श्रेणी-I उत्तराधिकारी—जीवित थे। ऐसे में धारा 6 के प्रावधान के कारण survivorship का सिद्धांत लागू नहीं होता और संपत्ति धारा 8 के तहत succession से विभाजित होती है, जिसमें प्रत्येक उत्तराधिकारी अपनी स्वतंत्र हिस्सेदारी प्राप्त करता है। अदालत ने सुप्रीम कोर्ट के प्रमुख निर्णयों Chander Sen और Yudhishter का हवाला देते हुए कहा कि धारा 8 से प्राप्त संपत्ति पर पुत्रों का कोई जन्मसिद्ध अधिकार नहीं बनता, न ही इसे संयुक्त हिंदू परिवार की संपत्ति माना जा सकता है। इस प्रकार रत्तन सिंह के हिस्से आई भूमि उनकी स्वयं-अर्जित संपत्ति बन गई, और वे उसे बेचने के पूर्ण अधिकारी थे।
अदालत ने यह भी स्पष्ट किया कि अपीलकर्ताओं द्वारा रखे गए तर्क—कि संपत्ति पैतृक थी—कानून के अनुसार टिकते नहीं हैं। न तो Arshnoor Singh का निर्णय लागू होता है, क्योंकि वह 1956 से पहले खुले उत्तराधिकार से संबंधित था, और न ही Vineeta Sharma का निर्णय प्रभावी है, क्योंकि वह 2005 संशोधन के बाद उत्पन्न coparcenary अधिकारों से जुड़ा है, जबकि इस मामले में संपत्ति दशकों पहले ही स्वयं-अर्जित में परिवर्तित हो चुकी थी।
इन सभी तथ्यों और कानूनी सिद्धांतों के आधार पर हाईकोर्ट ने माना कि पुत्रों के पास न तो संपत्ति में कोई जन्मसिद्ध हिस्सा था और न ही पिता द्वारा किए गए विक्रय को चुनौती देने का कोई वैधानिक आधार। इसलिए अदालत ने अपील को पूरी तरह खारिज कर दिया और प्रथम अपीलीय अदालत के 1993 के निर्णय को सही ठहराया, जिससे रत्तन सिंह द्वारा की गई सभी बिक्री वैध मानी गईं।

